हमारा समाज हमें अपने काम खुद करना नहीं सिखाता
हमारे घर कोई और बनाता है, खाना कोई और
सफ़ाई कोई और करता है, कपड़े कोई और सीता है
मिस्त्री गाड़ी ठीक करता है, बढ़ई फ़र्नीचर बनाता है
हमारे जीवन का हर एक पहलू
किसी और की बदौलत चलता है
मेरी ‘कामवाली’ दीदी उम्र में मुझसे छोटी हैं
जब उनसे बात करती हूँ तो सोचती हूँ
उनमें और मुझमें फ़र्क सिर्फ इतना है
की वो किसी और बस्ती में, किसी और के घर पैदा हुई थी
जब सड़क पे इन तमाम लोगों को देखती हूँ
जो भूखे पेट सैकड़ों मील चलने के लिए मजबूर हैं
तो हमारे सभी मतभेद — धर्म, जात, पात, रंग
बेमतलब, बेबुनियाद और काल्पनिक लगते हैं
हमारे समाज के अगर वर्ग हैं तो केवल दो —
अमीर और गरीब
बहुत दुख होता है यह देख कर
की हमारे घर बनाने वाले आज खुद बेघर हैं
और हमारा देश उड़ान भरने की बजाये
आँधियों से जूंझता हुआ नज़र आ रहा है
न जाने इनमें से कितनों ने ताली और बर्तन बजाए थे?











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