वो कहते हैं हमें उस ही तरह जाना है, जिस तरह हम आये थे
अकेले, बेनाम, बेबस, बेख़याल, बेबाक
हमारा वजूद एक दिन मिटटी में मिल जायेगा
तो किसी भी चीज़ पे जज़्बात बर्बाद करके क्या फ़ायदा?

बात तो सही कहते हैं वो
आखिर आज कल हर काम फ़ायदे के लिए ही होता है
हर ज़ख्म दिखाने के लिए होता है
हर फ़रियाद दिखाने के लिए होती है

लेकिन क्या इसका मतलब यह भी है
की माँ के हाथ की चाय में वो तेज़ चीनी
या पापा की डाई की हुई मूछों का रुतबा
कुछ मायने नहीं रखता?

बाबा की बीस साल पुरानी घड़ी जो अभी भी टिक-टिक करती है
या दादी की हिंदी कवियों पे लिखी हुई पी.एच.डी की थीसिस
ट्रंक में पड़े कपड़ों में नीम के सूखे पत्ते
या वो एक अलबेला गमला जो एक सूखी डंठल पकड़े बैठे है

क्या यह सभी अपना वजूद भूल चुके हैं?

वो कहते हैं पुरानी बातें भूल जानी चाहिए
आगे का सोचो, कदम बढ़ाओ, काम करो, कमाई भी
सपने देखो – लेकिन तरक्की के लिए, सुकून के लिए नहीं
जो पल बीत जाते हैं, उन्हें समेटने का क्या मतलब है?

तो क्या मेरी दराज़ में पुराने सूखे कागज़ की खुशबू
बगीचे में अमलतास के पेड़ की नज़ाकत
मेरी शेल्फ़ में पड़ी किताबों का रोज़ाना मुझे ताकना
या अदरक वाली उतावली चाय का छलक के प्याले में गिरना

क्या गर्दन पे वो पंखुड़ियों जैसे होंठ
क्या कानों में वो गरम साँसों की लहर
क्या आंसुओं की नदियाँ, अल्फ़ाज़ों के पुल
क्या संगीत का जुनून, कविताओं का शौक

क्या यह भी एक दिन अपनी अहमियत खो देंगे?

वो कहते हैं समय के साथ चलना चाहिए
समय किसी के लिए रुका है भला?
वो कहते हैं हमें उस ही तरह जाना है जिस तरह हम आये थे
अकेले, बेनाम, बेबस, बेख़याल, बेबाक

लेकिन अगली बार जब बारिश में दिल छलांगें मारे
या ढलते हुए सूरज की गुलाबी किरणें सीधा रूह तक पहुंचे
जब किसी बीती याद की तितली आपके आस पास मंडराए
जब किसी दोस्त की कही हुई बात आपको गुदगुदाए

तो ज़रा थम जाइये, रुक जाइये, और रोक लीजिये वक्त को भी
कहिये उससे – आओ दोस्त, ज़रा साथ बैठ के दो बातें कर लें?

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