कुछ अजीब सा रिश्ता है तुम्हारे साथ,
अकेले में जब बैठती हूँ, तो प्यार से बाहें फैला के तुम ही मेरे पास आती हो,
रात के सन्नाटे में जब नींद नहीं आती, तुम्हारी ही गोद में सोती हूँ,
तुम्हारे साथ वक़्त कम मिलता है अब, लेकिन जब भी
दिल के सबसे गहरे कोने से कोई बात निकलती है,
तो तुम्हारी ही याद आती है
जब भी मन से कोई दुआ निकलती है, या गुस्से में भड़ास,
तुम ही होती हो ज़बान पे।
फिर भी क्यों एक दूरी सी महसूस होती है हमारे बीच?
तुम मेरी बचपन की साथी ज़रूर थी,
लेकिन मेरे आज में तुम्हारी जगह कुछ कम है।
तुमसे दूऱ रहने का मन करता है, लेकिन
ज़्यादा देर दूर रहा भी नहीं जाता।
कहीं विदेश में तुम्हारी आहट सुनाई दे,
तो मन खट्टा सा हो जाता है,
क्यों पसंद नहीं आता तुम्हारा कच्चा, सच्चा रूप?
क्यों ऐसा लगता है की तुम सिर्फ आराम के लिए हो,
काम के लिए नहीं?
की तुम एक बिस्तर हो जिसपे लेट के मैं सो तो सकती हूँ,
लेकिन वो मेज़ नहीं जिसपे ज़रूरी चर्चा हो सके।
तुम हो तो इतने पास लेकिन मैं खुद ही तुम्हें धकेलती रहती हूँ,
ना जाने क्यों अब दूसरी ज़बानें ज़्यादा अपनी सी लगती हैं।










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